22 September 2023

भारत के महान संत ब्राह्मण सूरदास

सूरदास का जन्म 1478 ईस्वी में रुनकता नामक गाँव में हुआ. यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है. कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था. बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे. सूरदास के पिता रामदास गायक थे. सूरदास जन्म से ही अन्धे थे, किन्तु सगुन बताने की उनमें अद्भुत शक्ति थी. 6 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपनी सगुन बताने की विद्या से माता-पिता को चकित कर दिया था. किन्तु इसी के बाद वे घर छोड़कर चार कोस दूर एक गाँव में तालाब के किनारे रहने लगे थे. सगुन बताने की विद्या के कारण शीघ्र ही उनकी ख्याति चारों और फैल गई. गान विद्या में भी वे प्रारम्भ से ही प्रवीण थे. शीघ्र ही उनके अनेक सेवक हो गये और वे 'स्वामी' के रूप में पूजे जाने लगे. 18 वर्ष की अवस्था में उन्हें पुन: विरक्ति हो गयी और वे यह स्थान छोड़कर आगरा और मथुरा के बीच यमुना के किनारे गऊघाट पर आकर रहने लगे.

सूरदास का जन्म कब हुआ, इस विषय में पहले उनकी तथाकथित रचनाओं, 'साहित्य लहरी' और 'सूरसारावली' के आधार पर अनुमान लगाया गया था और अनेक वर्षों तक यह दोहराया जाता रहा कि उनका जन्म संवत 1540 विक्रमी (सन 1483 ई.) में हुआ था, परन्तु विद्वानों ने इस अनुमान के आधार को पूर्ण रूप में अप्रमाणिक सिद्ध कर दिया तथा पुष्टिमार्ग में प्रचलित इस अनुश्रुति के आधार पर कि सूरदास श्री मद्वल्लभाचार्य से 10 दिन छोटे थे, यह निश्चित किया कि सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी, संवत 1535 वि. (सन 1478 ई.) को हुआ था. इस साम्प्रदायिक जनुश्रुति को प्रकाश में लाने तथा उसे अन्य प्रमाणों में पुष्ट करने का श्रेय डॉ. दीनदयाल गुप्त को है. जब तक इस विषय में कोई अन्यथा प्रमाण न मिले, हम सूरदास की जन्म-तिथि को यही मान सकते हैं.

प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे. वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए. वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया. सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1580 ईस्वी में हुई. सूरदास का नाम कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सर्वोपरि है. हिंन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं. हिंदी कविता कामिनी के इस कमनीय कांत ने हिंदी भाषा को समृद्ध करने में जो योगदान दिया है, वह अद्वितीय है. सूरदास हिंन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं.

सूरदास जन्म के अन्धे माने गए हैं. लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते." श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - "सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता.'' डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - "सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए."

सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है. वे अपनी कृति “सूरसागर” के लिये प्रसिद्ध है. कहा जाता है की उनकी इस कृति में लगभग 100000 गीत है, जिनमे से आज केवल 8000 ही बचे है. उनके इन गीतों में कृष्ण के बचपन और उनकी लीला का वर्णन किया गया है. सूरदास कृष्ण भक्ति के साथ ही अपनी प्रसिद्ध कृति सूरसागर के लिये भी जाने जाते है. इतना ही नहीं सूरसागर के साथ उन्होंने सुर-सारावली और सहित्य-लहरी की भी रचना की है. सूरदास की मधुर कविताये और भक्तिमय गीत लोगो को भगवान् की तरफ आकर्षित करते थे. सूरदास ने अपने जीवन के अंतिम वर्षो को ब्रज में बिताया और भजन गाने के बदले उन्हें जो कुछ भी मिलता उन्ही से उनका गुजारा होता था.  सूरदास जी को वल्लभाचार्य के आठ शिष्यों में प्रमुख स्थान प्राप्त था. इनकी मृत्यु सन 1583 ई० में पारसौली नामक स्थान पर हुई. कहा जाता है कि सूरदास ने सवा लाख पदों की रचना की. इनके सभी पद रागनियों पर आधारित हैं. सूरदास जी द्वारा रचित कुल पांच ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जो निम्नलिखित हैं: सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती और ब्याहलो. 

सूरदास गीत गाते-गाते  इतना विख्यात हो गया कि दिल्ली के बादशाह अकबर के पास भी उसकी शोभा जा पहुंची. अपने अहलकारों द्वारा बादशाह ने सूरदास को अपने दरबार में बुला लिया. उसके गीत सुन कर वह इतना खुश हुआ कि सूरदास को एक कस्बे का हाकिम बना दिया, पर ईर्ष्या करने वालों ने बादशाह के पास चुगली करके फिर उसे बुला लिया और जेल में नज़रबंद कर दिया. सूरदास जेल में रहते थे. उसने जब जेल के दरोगा से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? तो उसने कहा -'तिमर|' यह सुन कर सूरदास बहुत हैरान हुए. कवि थे, ख्यालों की उड़ान में सोचा, 'तिमर.....मेरी आंखें नहीं मेरा जीवन तिमर (अन्धेर) में, बंदीखाना तिमर (अन्धेरा) तथा रक्षक भी तिमर (अन्धेर)!' उसने एक गीत की रचना की तथा उस गीत को बार-बार गाने लगे. वह गीत जब बादशाह ने सुना तो खुश होकर सूरदास को आज़ाद कर दिया तथा सूरदास दिल्ली जेल में से निकल कर मथुरा की तरफ चले लेकिन रास्ते में कुआं था, उसमें गिर गए लेकिन बच गए तथा मथुरा-वृंदावन पहुंच गए और  वहां भगवान कृष्ण का यश गाने लगे.

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