22 September 2023

भारत के महान संत एंव आध्यात्मिक गुरु ब्राह्मण रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे. इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया. उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया. स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे. साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं. वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं. मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फ़रवरी 1836 को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था. इनके बचपन का नाम गदाधर था. पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी के नाम चन्द्रा देवी था. उनके भक्तों के अनुसार रामकृष्ण के माता पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था. गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा की भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा की वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे. उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ था उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में रोशनी प्रवेश करते हुए देखा.


बचपन में इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था. सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया. ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया. आर्थिक कठिनाइयां आईं लेकिन बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ. इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे. वे गदाधर को अपने साथ कोलकाता ले गए. रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील थे. संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे. अपने कार्यों में लगे रहते थे. सतत प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया. 1855 में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को दक्षिणेश्वर काली मंदिर  के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था. रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे. रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था. 1856 में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया.

रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे. वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे. कहा जाता हैं की श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था. रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं " घर ,द्वार ,मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था और मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था. जिस दिशा में भी मैंने दूर दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक ,मेरी तरफ आ रही थी. अफवाह फ़ैल गयी थी की दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया था. रामकृष्ण की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर रामकृष्ण का विवाह करवाने का निर्णय लिया. उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आये ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा. रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए कन्या जयरामबाटी (जो कामारपुकुर से 3 मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में हैं) में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर पा सकते हैं. 1859 में 5 वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और 23 वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ. विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती थी और 18 वर्ष के होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी.

कालान्तर में बड़े भाई भी चल बसे. इस घटना से वे व्यथित हुए. संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ. अन्दर से मन ना करते हुए भी श्रीरामकृष्ण मंदिर की पूजा एवं अर्चना करने लगे. दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे. इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ. उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी. मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया. उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया. सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस. इसके बाद उन्होंने ईस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की.

समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया. कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं0 नारायण शास्त्री, पं0 पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे. वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे. इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं. इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे.

रामकृष्ण छोटी कहानियों के माध्यम से लोगों को शिक्षा देते थे. कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारों ने ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा था; हांलाकि उनकी शिक्षायें आधुनिकता और राष्ट्र के आज़ादी के बारे में नहीं थी. उनके आध्यात्मिक आंदोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ने का काम किया, क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती है. रामकृष्ण के अनुसार मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है ईश्वर प्राप्ति. रामकृष्ण कहते थे की कामिनी -कंचन ईश्वर प्राप्ति के सबसे बड़े बाधक हैं. श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी के अनुसार, वे तपस्या, सत्संग और स्वाध्याय आदि आध्यात्मिक साधनों पर विशेष बल देते थे. वे कहा करते थे, "यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम्भाव को दूर करो. क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का परदा कदापि न हटेगा. तपस्या, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि साधनों से अहङ्कार दूर कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो, ब्रह्म को पहचानो." रामकृष्ण संसार को माया के रूप में देखते थे. उनके अनुसार अविद्या माया सृजन के काले शक्तियों को दर्शाती हैं (जैसे काम, लोभ ,लालच , क्रूरता , स्वार्थी कर्म आदि ), यह मानव को चेतना के निचले स्तर पर रखती हैं. यह शक्तियां मनुष्य को जन्म और मृत्यु के चक्र में बंधने के लिए ज़िम्मेदार हैं. वही विद्या माया सृजन की अच्छी शक्तियों के लिए ज़िम्मेदार हैं. यह मनुष्य को चेतन के ऊँचे स्तर पर ले जाती हैं.

रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे. अत: तन से शिथिल होने लगे. शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे. इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे. रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे. यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं. चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है. यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो. क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये. रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे. सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे. सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे. गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये. चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे. चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया. सन् 1886 ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दिया. अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये.

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